आध्यात्मिक ज्ञान

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Friday, July 13, 2018

लिंग की आकार मे ही क्यू शिव जी को पुजा जाता हे ?

 अक्सर ये विवाद आप कभी किसी अन्य धार्मिक  सोसाइटी का चर्चा या फिर किसी के भड़काओ भाषण मे सुनते हे की हिन्दुवों के भगवान लिंग के रूप मे रहते हे और इसका मज़ाक बनाया जाता हे । इसके लिए आप यूट्यूब पे सर्च करके देखे आपको ऐसे हजारो विडियो देखने को मिलेंगे । मुझे ये विडियो देख कर बड़े अफसोस हुआ जहा कलाम जैसे इतने महान मुस्लिम हे तो कही ऐसे भी लोग रहते हे जिसके मस्तिस्क इतना विकृत किस्म के हे । जो हमारे ईस्वर को विकृत मनो से देखते हे । हर धर्म मे मनुस्य को नेकी की राह मे चलने की सलाह दिया जाता हे ताकि उसको परमेश्वर की प्राप्ति हो । किसी धर्म को मज़ाक बनाना या फिर उसका तिरस्कार करना कोई भी धर्म नहीं सिखाता। ये तो आपकी आस्था ही हे जो आपको आपके धर्म से बांधता हे । मानवीयता का  सीख ही हर धर्म देता हे । खेर अपनी टॉपिक मे आता हु । मैंने ये पोस्ट इसलिए लिक्खा ताकी जो लोग शिव की शिवलिंग के उत्पत्ति का अर्थ न जानते हो वो जान पाये और दूसरे भाइयो को भी जानकारी दे पाये । ताकि भविष्य मे कोई भी शिव लिंग पर प्रश्न न कर पाये । हर धर्म मे ईस्वर को निराकार कहा गया हे । जिसकी कोई आकार नहीं जो परंब्रहम हे जो सर्व ब्यापी हे जो सारी शक्ति की श्रोत हे । जिसकी आदि हे न अंत । इस शून्य मे केवल एक ही ध्वनि गूँजती हे और वो है ॐ।
लिंग शंकर
कुछ नहीं था तब भी ॐ था जब कुछ नहीं रहेगा तब भी ॐ रहेगा । ॐ  ही परंब्रहम हे जिसकी ना तो आकार हे न अंत। लिंग शब्द को आधुनिक समाज मे पुरुष का जनेन्द्रिय या स्त्री की जनेन्द्रिययो को दर्शया जाता हे ।लेकिन हमारे पुरानो मे इसका अर्थ एक चिन्ह के रूप मे किया गया हे । एक  पत्थर को भी लिंग के साथ दर्शाया जा सकता था । या फिर किसी ब्रिक्ष को लिंग  से दर्शया जा सकता था । यही परंब्रहम की कृपा से ही पाचमहाभूत,ब्रह्मांड और  करोरों अन्तरिक्ष का निर्माण आरंभ होता हे। परमेश्वर की कृपा से महत्व तत्व की उत्पत्ति हुई। इनहि महत्व तत्व मे गुण निहित थे तो गुण से त्रि गुण उत्पन्न हूये। और यही त्रिगुण त्रिदेव यानि ब्रह्मा विष्णु महेश के उत्पत्ति का श्रोत हे। सर्व प्रथम रजो गुणो से अहंग का उत्पत्ति हुआ उनसे अहंकार रूप आकार आरंभ हुआ । सत ने आकार लिया श्रीहरी विष्णु के रूप मे और विष्णु  जी की नावी से सृष्टि की रचयिता ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई । दोनों समझ नहीं पा रहे थे उनका सृजन का उद्देस्य क्या है। तभी निराकार परंब्रहम उनसे उनके उत्तरदायित्व के बारे मे बताते हे। उधर अहंग गुण से शब्द  ,स्पर्श,रूप ,रस,गंध इनकी कूटपतती हो गयी थी । इनहि से ब्रह्मा से पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश का निर्माण किया । सरी हरी विष्णु जो की सृष्टि के पालनहार हे उनही से ज्ञानेन्द्रिय,कर्मेन्द्रिय की उत्पत्ति होती रही । लेकिन तमो गुण वैसी ही थी ।ब्रह्मा जी के उत्पत्ति के वक़्त पाच सिर थे और विष्णु जी ने नाव से उत्पत्ति के बाद भी वो विष्णुलोक वैकुंठ से कोसो मिल ऊपर थे ब्रह्मलोक मे । पृथ्वी मे जीवन और बनस्पतियों की उत्पत्ति मे इतना विलीन हो गए की ब्रह्मदेव रजो गुण के वश मे आ गए और स्वयं को सर्वश्रेस्ट सर्वशक्ति मान मानने लगे ।  ब्रह्मदेव  विष्णु जी से मिलने वैकुंठ आ गए और कहने लगे की हम दोनों  अनादिशक्ति के अलावा इस अनंत ब्रह्मांड मे और  कोई आदितिया शक्ति नहीं हे अतः हमे  हम दोनों मे से कौन श्रेस्थ हे ये जांच लेनी चाहिए । श्रीहरी विष्णु जी जो स्वयं महादेव ही है या फिर कहे परंब्रहम ब्रह्मा जी के रजो गुण को भाप गए और समझने के प्रयत्न करने लगे । लेकिन  ब्रह्मा जी अपने अहंकार मे इतने विलीन थे उन्होने विष्णु जी को शक्ति परीक्षण के लिए बादध्य किया और मतभेद आरभ कर दी । दोनों की मतभेद को देख परंब्रहम ने स्वयं को एक ज्योति स्वरूप के रूप मे प्रकट की जिसकी न तो आदि था न अंत । और ये शर्त रखखा के दोनों मे से जो सबसे पहले मेरे किसी भी छोर का अंत निकाल पाएगा वही दोनों मे से श्रेष्ट होगा । श्रीहरी विष्णु परंब्रहम को समझ गए थे परंतु ब्रहमजी ज्योति की ऊपर वाली दिशा की और जाने की इच्छा जताई और विष्णु जी ने नीचे जाने को स्वीकार किया ।दोनों ज्योति के  अंत के खोज मे हजारो ब्रह्म वर्ष  तक  गए परंतु किसी को अंत या आरंभ स्थान नहीं मिला।
shiv image
तभी ब्रह्मा जी को ज्ञात हुआ के परंब्रहम ही सर्वश्रेस्ट हे और परंब्रहम ने शिवा के रूप मे दोनों को दर्शन दिया । इसमे शक्ति और शिव दोनों निहित थे । तभी परंब्रहम के ज्योति से  शृष्टि के संहार हेतु तमो गुण से महादेव  शिव का सृजन किया  । जो की महादेव की श्रीष्टि ज्योति स्वरोपा परंब्रहम से हुआ तो महादेव  ज्योति चिन्ह मे पूजित थे । और ब्रह्मदेव द्वारा रचित कैलाश मे जाकर स्थित हुवे। शिव जो की कल्याणकारी हे और परंब्रहम हे सर्वतत्व के स्वामी हे। उन्हे प्रशन्न करने हेतु ब्रह्मदेव से उत्पन्न सप्तऋषि ज्योति को शिव का ज्योति स्वरूप मानकर तपस्या करते थे पर ज्योति जो की वायु से हलचल होती है उन्हे ज्योति मे ध्यान केन्द्रीद करना मुश्किल होता था । तभी प्रजापति ब्रह्मा जी ने शिव जी आज्ञा से  शिव लिंग यानि शिव का प्रतीक उस दिव्य ज्योति को ध्यान मे रखके उत्पत्ति की थी।
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ये सारी जानकारी लिंग पुराण जो पुरानो मे श्रेष्ठ पुराण माना उसमे उल्लेख पाया जाता हे । ब्रह्मा जी ने पुराण को १०० करोर स्लोकों मे ग्रथ बनाया था । जो की वेदव्यास ने चार लाख सबदों मे बताया फिर आगे जाकर हमारे पुरानो मे इसको ईग्यारह स्थान मिला । तो दोस्तो शिव लिंग को किसी दूसरे अर्थ से ना जोरे ये शिव के दिव्य ज्योति के प्रतीक है ।

Tuesday, July 10, 2018

आइये जानते हे ईलाहाबाद के कुम्भ मेले के बारे मे 

कुम्भ मेला जो की विस्व प्रसिद्ध हे । लाखो करोरों की तादाद मे  सैलानी यहा गंगा मे  डुबकी लगाने आते हे। कुम्भ मेले जो की १२ वर्सो मे एक बार होता हे । यह उत्सव माघ महीने मे हर वर्ष  इलाहाबाद मे माघ मेले के रूप मे और हर ६ वर्ष के अंतराल मे अर्ध कुभ मेले के रूप मे मनाया जाता हे ।  कुम्भ मेले जो की १२ साल के अंतराल मे  होता हे उसकी तिथि  कैसे निर्धारित होती हे इसकी कोई सटीक लेखा जोखा नहीं पाया जाता मगर इतना कहा जाता हे की जब बृहस्पति मेष राशि मे और सूर्य  मकर राशि मे प्रवेश करता हे १२ वर्ष के अंतराल मे मेले का आयोजन किया जाता हे । हमारे हिन्दू धर्म की पुरानो मे इस मेले का वर्णन पाया जाता हे की किस कारण से इसे एक पवित्र दिवस के रूप मे मनाया जाता हे । कुम्भ मेले १२ वर्ष के अंतराल से १२ बार होने पर उसे महा कुभ मेले भी कहा जाता हे ।अर्ध कुम्भ मेलें जो की ६ वर्ष की अंतराल मे होता हे उसे  हरिद्वार या इलाहाबाद के प्रयाग और हरिद्वार  मे मनाया जाता हे । पूर्ण कुम्भ मेले भारत के चार जगह मे  मनाया जाता हे इसे नाशिक के गोदावरी नदी के तट पर ,हरिद्वार के गंगा ,उज्जैन के शिप्रा नदी मे और इलाहाबाद के प्रयाग मे जागा तीन नदी गंगा ,यमुना और सरस्वती का संगम हे वह स्थान पर मनाया जाता हे । 

ujjain mela ujjain kumbh
मेले  के आरंभ मे यहा लाखो श्रद्धालु कुटीर तो कोई टेंट लगा के रहते हे । यहा नागा  साधू और तांत्रिक और साधको की भीढ़ देखने दुनिया के कोने कोने से लोग्ग आते हे । इनमे से कोई ऐसे भी होते हे जो नए दीक्षा लेते हे और अपने को सम्पूर्ण रूप से नागा साधु या तांत्रिक या फिर साधक  के रूप मे समर्पित करते हे । तो कोई अपने चरो कल्पो के पाप हर्णे पाप नाशिनी गंगा मे डुबकी लगाने आते हे ।
allahabad


ये महोत्सव हिन्दू धर्म के लिए सबसे पबितरा दिन माना गया हे । ये भारत मे रहने वाले हिन्दू के लिए महत्वपूर्ण दिन होते हे । क्यूकी इस लग्न मे मकर संक्रांति का त्योहार भी पूरे भारत मे मनाया जाता हे । जिस दिन पवित्र गंगा मे डुबकी लगाया जाता हे उसदिन सर्व प्रथम नागा साधु और साधको का एक विशाल रैलि निकलती हे जो गनग मे स्नान से समाप्त होता हे । गंगा मे स्नान से पूरब जो साधक और नागा साधू यहा कुतिया और टेंट बनाके रहते हे वह साधना मे लीन रहते हे । नागा साधु और साधक की रैलि की स्नान के पश्चयात ही आम श्रद्धालु को स्नान करने की अनुमति दिया जाता हे ।गंगा तो पाप नाशिनी हर दिन होता पर इस दिन ही क्यू इतना भीड़ ? आपके  मन मे ये प्रश्न उठ रहे होंगे ? जारहसल बात यह हे की इशी  दिन 
जब  समुद्र मंथन से निकला हुआ अमृत (जो की किसी भी वस्तु तो अमर  बना दे )  भगवान नारायण के अवतार मोहिनी अपने साथ अमृतसे पूर्ण कलश (कुम्भ) को लेकर देवता और असुर को बाटने हेतु लीला कर रहे थे और कलश से चार बूंद चार अलग अलग जगह पर गिरि थी और इनहि चार जगह मे से एक इलाहाबाद के प्रयाग को माना जाता हे । अतः उस तिथि को याद करके ही यहा गंगा स्नान की परंपरा वर्षो से होती आ रही है ।
ये भारत के सबसे  बड़े मेले हे जहा लोगो का सैलाब उमरता हे । ये आस्था ऐसी ही  बनी रहे और ये विश्व शांति की संदेश मानवजाति को देते रहे।.

Sunday, July 1, 2018

महाभारत के सबसे शक्तिशाली योद्धा कौन था?

हम सब जानते हे की द्वापर युग मे कौरव और पांडवो के बीच भयंकर विनाशकारी युद्ध हुआ था। बहुत रथी माहारथी से परिपूर्ण इस युद्ध मे ऐसे भी योद्धा थे जो एक ही बान में युद्ध को समाप्त करने की सामर्थ रखते थे। यह युद्ध किसी के लिए प्रतिसोध लेने के तो किसी के लिए आत्मसम्मान और किसी के लिए शक्तिप्रदर्शन का माध्यम बन चुका था।


इस युद्ध मे भगवान सरी कृष्ण ही ऐसा था जो सबसे शक्तिशाली थे । जो की स्वयम  परंब्रहम के अवतार थे जो अविनाशी हे लेकिन कृष्ण जी धर्म अधर्म के इस युद्ध मे सारथी बने थे और युद्ध मे भाग नहीं लिया था। अब आप के मन में ये प्रश्न उठेगा की आखिर मे कौन था ऐसा योद्धा जो की एक ही बान में युद्ध को समाप्त करने का सामार्थ रखता था। जब अर्जुन रणभूमि में अपने ही भाइयो और चाचा और गुरु के विपक्ष लड़ने गए तो वो आत्मग्लानि में धनुष को उठा नहीं पा रहे थे तभी कृष्ण ने अपने परंब्रहम रूप के दर्शन देकर अर्जुन को संसार के सत्य और असत्य का ज्ञान दिया था।इतने में भी अर्जुन को यह लगता था सायद कौरव की सेना में भी उनही की तरह कोई सोच रखता हो लेकिन अपनी अपनी आत्मीय धर्म का पालन करने हेतु युद्ध कर रहे हे। सायद कौरव के सेना में किसी को अपने शक्तियों का घमंड न हो ? अर्जुन के इस मनोबयथा को दूर करने के लिए ही कृष्ण जी ने युद्ध से पहले सभा का आयोजन किया और दोनों पक्ष के सभी महारथियो को इसमे आमंत्रित किया गया ।

सभा में कृष्ण ने सभी से राय मांगा की सबलोग बताए की कौन कितने दिनो में इस युद्ध को समाप्त कर सकता हे।प्रश्न के तुरंत ही जैसे सभी को अपने पराक्रम दिखाने की होड़ लग गयी। सहस्र भुजाओ का बल रखने वाला मल्ल युद्ध निपुण  दुर्योधन ने कहा की वो अकेले ही युद्ध को ३०दिनो मे समाप्त कर सकता हे । वही  धनुष विद्या के महारथी कृपाचार्य ने कहा की वो २० दिनो में ही युद्ध समाप्त कर सकता हे । इस क्रम में एक नाम जुड़ गए अस्वात्थामा (द्रोणाचार्य के पुत्र) की वो केवल १७ दिनों में युद्ध समाप्त कर सकता हे । द्रोणाचार्य ने कहा वो केवल १५ दिनों में युद्ध समाप्त कर देगा । अर्जुन भी अपनी शक्ति प्रदर्शन की लालसा में कह गए की वो भी केवल १४ दिनों में युद्ध समाप्त कर सकता हे। सूर्य पुत्र कर्ण कहा पीछे रहने वाले थे  कर्ण ने कहा की वो केवल १२ दिनों मे युद्ध समाप्त कर देगा । गंगा पुत्र भिस्म को  कृष्ण के इस लीला का भान था जानते हुये भी की सभी अपने शक्ति के अहंकार से यह बोल रहे हे धर्म के पथपर चलके किसिने युद्ध को शांति से हल करने के बजाय पराक्रम दिखाने का माध्यम बनाया हे। भिस्म ने कृष्ण के लीला को लीला रहने दिया और कहा की इस युद्ध को केवल सात दिनों में समाप्त कर सकता हे।इससे अर्जुन का मोह त्याग हुआ उन्हे पता चल गया की सभी उनसे युद्ध करने के लिए आतुर हे ।लेकिन कृष्ण को यह पता था इन सभी योद्धाओ से भी अति शक्तिशाली योद्धा था जो सभा में उपस्थित नहीं था और ये योद्धा रणभूमि की और युद्ध में भाग लेने आ रहा हे । वो योद्धा था बर्बरिक,
बर्बरिक भीम का पौत्र और घटोत्कच (भीम और हिडिंबा के पुत्र )और  मौरवी या फिर अहिल्यावती( नागराज वासुकि की पुत्री ) का पुत्र था। बर्बरिक को अस्त्र शस्त्र का ज्ञान अपने माँ ने प्रदान किया अपने दादी हिडिंबा से मायाबी विद्याओ का ज्ञान मिला था । फिर भी उतने में  संतूस्त न होकर उन्होने माँ आदिशक्ति की घोर तपस्या की और उन्हे  प्रशन्न कर उनसे वैष्णवयास्त्र प्राप्त की आदिशक्ति माँ ने और काईसारे घातक अस्त्र भी बर्बरिक को प्रदान किया था । जन्म से ही इतना बलशाली और यक्ष होने के बावजूतमानव रूप मे रहा माँ शक्ति प्रमुख भक्तो में से एक और मातृ सेवा से परिपूर्ण एक गुणवान पुत्र था बर्बरिक जो हमेशा अपने माँ के बात को नहीं टालता था। इतना तेजस्वी था की अनेकों सूर्य उनमे समा जाए ।इतने सारे शक्तियों के स्वामी होने के बाद भी वो विनम्र थे ज्ञान सागर से परिपूर्ण थे । बर्बरिक के माँ ने उनसे बचन मांगा था की वे हमेशा दुर्बल का  साथ दे। ऐसे में अगर वो पहले पांडवो का साथ देते तो पूरी कौरव सेना पलभर समाप्त कर देते और फिर कौरवो का पक्ष लेके पांडवो का नाश कर देते । 

अधर्मियों का नाश और धर्म की स्थापना हेतु  कृष्ण जी ब्राह्मण वेश में बर्बरिक की मार्ग रोक लेते हे और अपने मीठी मीठी बातों में उनको उलझाते हे ।  कृष्ण उनसे उनके अशिम शक्ति का प्रदर्शन करने को विवश कर उनको वचनवद्ध करवाता हे की उनके एक बाण से अगर एक पेढ़ के असंख्य पत्तियों को छेद बना पाये तो वो मार्ग से हट जाएगा और अगर वो ऐसा कर नहीं पाये तो कृष्ण जो उनसे माँगेगा उसको देना परेगा। बर्बरिक ब्राह्मण के वेश मे कृष्ण को पहचान लेता हे फिर भी कृष्ण के हाथो ही मृत्यु हो इसलिए चुनौती को स्वीकार कर लेता हे । बर्बरिक की एक बाण से ब्रिक्ष के सारे पत्तों मे छेद बन जाता हे मगर कृष्ण उससे पहले ही एक पत्ती अपने  पैर पर छिपा लेता हे। कृष्ण कुछ कहे उनसे पहले ही बर्बरिक उनसे कहता हे की आपने जो पत्ती अपने पेर पर छिपाया हुआ हे उसमे भी छेद बन गए हे । कृष्ण का भेद खुलने पर कृष्ण अपने स्वरूप में आता हे । बर्बरिक  कृष्ण से  कहता हे की ब्राह्मण वेश में कृष्ण को उसने पहले ही पहचान लिया था और कृष्ण की मार्ग रोकने की उद्येश्य को भी भलभती वे जानते हे। तपस्या करते वक़्त माँ शक्ति से उसने ये भी वरदान मांगी थि के किसी परंभ्रम चरचर अविनाशी से उनकी मृत्यु हो । आज उनके ये इच्छा भी पूर्ण होने जा रही हे । इतने माहान और विनाशकरी शक्तियों के स्वामी होने के बाद भी इतने उदार निर्मल मन के बर्बरिक से कृष्ण अति प्रशन्न होते हे और उनसे वरदान मांगने को कहते हे । बर्बरिक कृष्ण से वरदान मांगता हे की हे प्रभु में इस धर्म और अधर्म के युद्ध के आरंभ से अंत को अपनी आंखो से देखना चाहता हु। आपके द्वारा काही जाने वाले गीता की ज्ञान को में अपने कानो से भी सुन्न चाहता हु । में  आप इस युद्ध के दौरान अर्जुन को जो विराट स्वरूप दिखाने जा रहे हे उस रूप का दर्शन प्राप्त करना चाहता हु । तो बर्बरिक को आगे क्या होगा इसकी भी ज्ञान थी।कृष्ण तथास्तु कहते हुये अपने सुदर्शन चक्र से बर्बरिक का शीश धर से अलग कर देता हे और उसके शीश को  दिव्य चक्षु और दिव्य आयु प्रदान करता हे जिससे वो सम्पूर्ण युद्ध देख पाय । और उसके शीश को किसी एक उचे स्थान पे स्थित कर देता हे । युद्ध समाप्ती के बाद पाँच पांडवो को कृष्ण अपने साथ बर्बरिक के पास लेकर आता हे । कृष्ण उनका परिचय करवाता हे पांडवो से । कृष्ण बर्बरिक से पूछता हे की उसने इस्स युद्ध में क्या देखा ? तभी भीम स्वम ही अपनी प्रशंग्शा करता हे की उसने देखा होगा कैसे मैंने दुर्योधन का वध किया । अर्जुन कहता हे क्या तुमने देखा की मैंने कैसे भिस्म, कर्ण ,द्रोणाचार्य,कृपाचार्य  जैसे महारथियो का वध किया ? तभी बर्बरिक का अट्टहास सभी को अचम्बित कर देता हे । बर्बरिक अट्टहास के साथ कहता हे की मैंने तो सिर्फ कृष्ण का सुदर्शन चक्र को युद्ध भूमि में सत्रुवों का विनाश करते देखा । न तो उसमे भीम का बाहुबल न ही उसमे अर्जुन की गाँडीव के तीर थे । जो कुछ भी आज जीवित हे वो केवल और केवल प्रभु कृष्ण के कारण ही । इससे भीम और अर्जुन को अपने अहंकार का आभास होता हे और लज्जित होते हे । यह उस बात को प्रमाणित करते हे की महाभारत के युद्ध में कोई  सर्ब्शक्तिमान था तो वो श्री कृष्ण के अलावा और कोई नहीं था । उसके बाद किसिका स्थान आता हे तो वो बर्बरिक ही होगा । जिसकी तीन बाण से युद्ध  पालकझपकते ही शेश हो जाता । एक बाण से सत्रुवों का सम्पूर्ण सेना का विनाश एक बाण से अपने और सेनाओ का आत्मरक्षण और एक बाण से सत्रुवों के जीतने योद्धा सब का विनाश । इसी महानता के लिए बर्बरिक महाभारत काल से भारत के कई राज्यो में अलग अलग नाम से पूजे जाते हे । राजस्थान में खाटू श्यामजी ,बलियादेव नाम से   गुजरात में  पूजे जाते हे ।

हमारे अगले ब्लॉगिंग में जनिएगा खाटुश्याम जी के पूजा के तिथि और विधि और उसके लाभ के बारे में। खाटुश्याम जी सबकी मनोकामना पूरी करे धन्न्याबाद।











Tuesday, June 26, 2018

व्रत पुर्णिमा व्रत की महिमा                                  

ज्येस्ठ महीने के शुक्ल पुर्णिमा के दिन ये पुजा अति लाभ दायक हे। । इस दिन को विवाहित स्त्री विधिवत व्रत का पालन कर अपनी पति कि लंबी आयु और परिवार की शकुशल कामना करती हे। जो की यह पुजा वट के पेड़
पर किया जाता हे इसीलिए इस व्रत का नाम वट पुर्णिमा व्रत हे ।यह पूजन एक विवाहित स्त्री के लिए काफी महत्वपूर्ण हे।




आईए जानते हे इसके पूजन विधि और इसके महत्व
पहले स्त्री को सुबह उठके अपने नित्य कर्म करने के बाद स्नान कर ले । उसके पश्चात नए कपड़े पेहेनकर सौलह श्रिंगार करे । पुजा की सामाग्री को वेत के कटोरे मे रखखे । पुजा की सामग्री मे हल्दी ,चन्दन,कुमकुम, चूड़ी, लाल धागा,लाल कपड़ा, पुस्प ,घी,दिये ,अगरबत्ती ,वेतके पंखे ,कलश जल से भरा हुआ और पाँच प्रकार के फल रखखे ।अब बरगत के पेड़ यानि के वट के वृक्ष के नीचे की जगह साफ करले। वहा पे सत्यवान और सावित्री के प्रतिमा को रखखे और बीच मे यम की प्रतिमा को रखखे । यम की मूर्ति रखते समाय ध्यान दे की सत्यवान की प्रतिमा यम कि प्रतिमा के दाई (लेफ्ट) तरफ हो । अब हल्दी ,चन्दन ,कुमकुम, घी, अगरबत्ती ,पुस्प और पाँच प्रकार के फल से पुजा आरंभ कीजिये । लाल कपड़े से तीनों प्रतिमा को समर्पण करे , चूड़ी सावित्री के प्रतिमा को दे ,वेत/बास के पंखे को समर्पण करे ।अब लाल धागे से बरगत की पेड़ को बांध कर 21या 51 या 108 बार पति की सुरक्षा का स्मरण करके परिक्रमा करे ।पुजा समाप्त करने से पहले सावित्री और सत्यवान की कथा को सम्पूर्ण अवस्य सुने । ये कथा आप ख़ुद  से पड़ सकते हे । अगर किसी ब्राह्मण को पुजा करने हेतु बुलाये तो ब्राह्मण को दक्षिणा अवस्य दे । पुजा समाप्त करने के बाद प्रसाद को परिवार को दे और जो पंखे आपने पुजा मे समर्पण किए थे उसी से घर मे अपनी स्वामी की सेवा करे । पूरा दिन उपवास रखने के बाद शाम को मीठा खाकर व्रत को तोड़े ।

Monday, June 25, 2018

असम के अंबुबाछी मेले 


पूर्वोत्तर भारत के प्रवेश दुयर कहे जाने वाले गुवाहाटी नगर के नीलाचल पाहार पर स्थित कामाख्या माँ के मंदिर देश के प्रमुख शक्ति  पीठो मे से एक हे। माता के ईक्यावन शक्ति पीठ मे से प्रमुख इस शक्ति पीठ मे अंबुबची मेले की दिन पूरे भारत से दर्शनार्थियों का भीर का जमावरा लग जाता हे ।आकरे के हिसाब से नज़र डाले तो इसी उत्सव के दौरान  गुवाहाटी शहर सअबसे ज्यादा ब्यस्त दिखाई देता हे । सैलानी इतने तादात मे आते हे की भीर को काबू  करना मुसकिल सा हो जाता हे । आप सोच रहे होंगे के इसि उत्सव मे क्यूँ ?

ऐसी मान्यता हे की ज्येस्था महिना के इसी दिन के दौरान मंदिर के गर्भ गृह मे माता का मासिक धर्म आराम होता हे  और नीलाचल पाहर के पास से बहने वाली भारत की एकमात्र नद ब्रह्मपुत्र का पानी लाल रंग  होने लगता हे । लेकिन बीते कुछ सालो मे साधक और तांत्रिको का कहना हे की पहली की तरह पानी लाल नहीं दिखाई देता । इस दौरान माँ के मंदिर के प्रवेश द्वार बंद रहते हे और किसिकों अंदर जाने की अनुमति नहीं रहती ।पास के भूतनाथ शमशान मे ये तांत्रिक और साधक इस उत्सव के दौरान तंत्र मंत्र की साधना मे विलीन रहते हे ।पुरानो मे इसका वर्णन हे की जब माता सती के शरीर के टुकड़े हो गए थे तो उनका योनि अंग यहा आके गिरा था । फलस्वरूप पूरे भारत मे ये एकमात्र मंदिर हे जहा माँ के ये  अनोखी चमत्कार देखनों को मिलते हे । तांत्रिक और साधक और भक्तो का मानना हे माँ  को इस् महीने पूजने का लाभ अन्य महीने से ज्यादा होता हे । माँ कामाख्या को तंत्र मंत्र का स्वामिनी भी कहा जाता हे । बहरहाल इसीलिए तांत्रिक और साधक यहा प्रतिवर्ष इस उत्सव मे भाग लेने के लिए लिए  हे ।यह मंदिर भारत के महाकाव्य महाभारत काल से अपने साथ प्राचीन इतिहास को समेटे उसी स्थिति मे मजबूत खड़ी हे । देश के पार अब विदेशो मे भी इसके चर्चे होने लगे हे।  मेले के दौरान माँ के दर्शन मात्र से हर मांगी मुरात पूरी हो जाती हे । यहा जो भी माँ के दर्शन के लिए आते हे उन्हे कभी निराशा नहीं होता ।सालो से चलती आरही इस आस्था भक्ति मान्यता और कहानियो मे समेटे हे माँ शक्ति के कामाख्या रूप मे यहा मंदिर।
जय माँ कामाख्या